3D टेक्नोलॉजी की कल्पना भले ही बेजान तस्वीरों को जीवंत बनाने के लिए की गयी हो, पर अब इसका दायरा काफी विस्तृत हो चुका है। यहां तक कि थ्री डी टेक्नोलॉजी से अब मनचाही चीजों के निर्माण की कोशिश की जा रही है। इसी से जुडी हुई सबसे बड़ी खोज है 3D प्रिंटर की जिससे कुछ साल बाद मानव अंग निर्माण की भी उम्मीद है, क्यूंकि आजकल ये शुरुआती दौर में है,और आने वाले समय में इसके और ज्यादा विकसित होने की उम्मीद है। जिस चीज को हम अपनी आँखों से देख लेते हैं, उस पर हम बहुत जल्दी विश्वास करते हैं। 3D टेक्नोलॉजी भी उन्ही में से एक है, तो आइये विस्तार से जान लेते हैं इसके बारे में। इस पोस्ट में आप जितना निचे की तरफ जायेंगे उतना ही बेहतरीन जानकरी आपको पढ़ने को मिलेगी, और ये जानकारी आपको किसी भी दूसरी वेबसाइट पर नहीं मिलेगी, क्यूंकि ये जानकारी हमने बहुत ही ज्यादा समय लगाकर गहन अध्यन के बाद हमारी वेबसाइट पर पब्लिश की है।
3D तस्वीरें आपके मस्तिष्क को कुछ इस तरह से धोखा देती हैं, कि आप यह मानने पर मजबूर हो जाते हैं कि जो कुछ आप देख रहे हैं वो बिल्कुल सच है, 3D तस्वीरें किसी खूबसूरत पेंटिंग या फोटोग्राफी तस्वीर की तरह सपाट नहीं होतीं, बल्कि उनमें गहराई/ Depth होती है, बिल्कुल हमारे आसपास की असली दुनिया की तरह। तभी तो आप 3D फिल्म देखते वक़्त हमें ऐसा परतीत होता है की हम इन सभी चीजों को हाथ से पकड़ सकते हैं।
2D और 3D तकनीक में क्या अंतर होता है? Difference between 2D and 3D technology.
3D में बहुत सारी चीजें शामिल होती है जिनका जिक्र हम आगे कर रहे हैं, इसमें हम उन सभी चीजों को शामिल करेंगे जो थ्री डी टेक्नोलॉजी से जुडी हुई है। 3D टेक्नोलॉजी क्या है, इसमें नौकरी के कितने अवसर हैं?
इसे मैं आपको एक उदहारण के माध्यम से समझाता हूँ, मान लीजिए कि हम घर के बाहर कहीं भी किसी खुले मैदान में किसी पौधे को देख रहे होते हैं, इस स्थिति में हमारी बायीं और दायीं दोनों आंखें उस पौधे की दो तस्वीरें हमारे मस्तिष्क में भेजती हैं और हमारा मस्तिष्क उन दो तस्वीरों को प्रोसेस करके एक ऐसी जीवंत तस्वीर बना लेता है, जिसमें गहराई और दिशा के साथ उस पौधे की पूरी जानकारी होती है। और इसीलिए मैदान में खड़ा पौधा हमें जीवंत लगता है और हम पौधे की दिशा में जाकर उसे छू सकते हैं। यानी पहली थ्री डी मशीन खुद प्रकृति ने हमें दे राखी है, और वह है हमारा मस्तिष्क। जैसे हमारी दायीं और बायीं/Left and Right आंखों से ली गयी तस्वीर को हम एक देखते है। ठीक उसी तरह दो अलग-अलग तस्वीरों को ओवरलैप/Overlap कर एक नयी थ्री डी तस्वीर बनाने की इसी तकनीक को स्टीरियोग्राफी/Stereography कहते हैं। 3D Technology अब और भी ज्यादा विकसित हो रही है। इसे अब हम महज एक ऑप्टिकल इल्यूजन/Optical Illusion यानी दृष्टि भ्रम नहीं मान सकते, क्यूंकि अब हमारे पास 3D प्रिंटर मौजूद हैं जिसके द्वारा हम ठोस और वास्तविक चीजों का निर्माण कर सकते हैं। 3D तकनीक के माध्यम से हमारी कल्पना ठोस और वास्तविकता का स्वरूप धारण कर चुकी है। इस लेख में हम आगे चलकर कुछ ऐसी ही चीजों के बारे में आपको बताने वाले हैं जो बेजान सी लगने वाली चीजों को जीवन रूप में हमारे सामने दिखने का अनोखा कारनामा करती हैं।
थ्री डी स्टीरियोस्कोप/3D Stereoscope
किसी भी प्रकार की हाथ से बनी एक जैसी दो सपाट तस्वीरों में गहराई यानी 3D का भ्रम पैदा करनेवाली सबसे पहली मशीन जिसे स्टीरियोस्कोप कहा जाता है, ब्रिटिश वैज्ञानिक सर चाल्र्स व्हीटस्टोन/Sir Charls Wheatstone ने साल 1838 में बनायी थी। उन्होंने एक दूसरी से थोड़ी दुरी पर रखी एक जैसी दो तस्वीरों के प्रतिबिंब के बीच में 45 डिग्री के कोण दो दर्पणों को इस तरिके से रखा कि इसमें देखने पर वो तस्वीरें 3D इफ़ेक्ट के साथ दिखाई देने लगी। लेकिन उस वक़्त का उनका वो स्टीरियोस्कोप इतना ज्यादा व्यावहारिक नहीं था, हाँ आज इस तकनीक ने बहुत उन्नत तकनीक विकसित कर ली है।
पलफ्रिच का थ्री डी स्टीरियोस्कोप/ Palfrich 3D Stereoscope
इसके कुछ सालों बाद जर्मन वैज्ञानिक कार्ल पलफ्रिच/Curl Pulfrich ने ऐसा ही एक थ्री डी स्टीरियोस्कोप/3D Stereoscope बनाया जो वव्यहारिक रूप से काफी अच्छा था, जिसके द्वारा आप बेहतरीन 3D इफ़ेक्ट का आनद ले सकते थे। उनका ये डिज़ाइन बिलकुल ऐसा ही था जैसा आजकल खिलौनों की दुकान पर मिलने वाला व्यूमास्टर/View master होता है। इसमें सबसे खास बात ये थी कि इस स्टीरियोस्कोप में बेहतरीन 3D व्यू बनाने के लिए प्रकाश विज्ञान यानि ऑप्टिक्स एफ्फेट का प्रयोग किया गया था। उनकी इस खोज को पलफ्रिच इफ़ेक्ट का नाम दिया गया। आजकल पलफ्रिच इफ़ेक्ट को हॉलीवुड और बॉलीवुड की सभी 3D फिल्मों में इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ आपको ये भी बतादें की सर पलफ्रिच इस तकनीक को कभी खुद इस्तेमाल नहीं कर पाए, क्यूंकि उनको कुछ सालों से एक आँख से दिखाई ही नहीं देता था। उनका ये आविष्कार दुनिया के लिए समर्पित था।
थ्री डी कैमरा और चश्मा /3d Camera and Glasses
साल 1844-49 में स्कॉटलैंड के Sir David Brewster ने एक ऐसा स्टीरियोस्कोप कैमरा बनाया जो 3D तस्वीरें खींच सकता था। इस कैमरे ने थ्री डी तस्वीरों को डिब्बेनुमा मशीन 3D Stereoscope से आजादी दिला दी। उस वक़्त इस कैमरे से थ्री डी तस्वीर तो खींच ली जाती थी, लेकिन समस्या ये थी कि अब इसे खुद कैसे देखें, और दूसरों को कैसे दिखाएं? यहीं से 3D तस्वीरों को देखने के लिए किसी खास चश्मे की जरूरत महसूस हुई। इस कैमरे की मदद से साल 1851 में लंदन के एक बड़े प्रदर्शन समारोह में लुइस जूल्स डबोस्क/Luice Julus Dabosk ने रानी विक्टोरिया/Queen Victoria की एक तस्वीर खींची थी, जो बाद में दुनियाभर में बहुत मशहूर हुई। इसी प्रदर्शनी के बाद 3D चश्मों का महत्व बहुत बढ़ गया और तभी से पता लगा कि अगर चश्मे ज्यादा हों, तो एक ही वक्त में एक से ज्यादा लोगों को थ्री डी तस्वीरें दिखाई जा सकती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध/Second World War में 3D Stereoscopic कैमरों का बड़ी मात्रा में इस्तेमाल हुआ था। लेकिन आज 3D कैमरों के क्षेत्र में अकल्पनीय उन्नति हुई है।
एनाग्लिफ तकनीक/Anaglyph Technology
अब एक ऐसा दौर शुरू हो चूका था की जिसमे 3D टेक्नोलॉजी एक व्यावसायिक स्वरूप में सामने आने लगी थी। एनाग्लिफ तकनीक में तस्वीरें कहीं ज्यादा वास्तविक और गहराई लिए हुए प्रतीत होने लगी थीं। इस तकनीक का व्यावसायिक स्वरूप का इस्तेमाल आज बहुतायत में किया जा रहा है, जिसका नाम है 3D Anaglyph Technology। इस तकनीक में एक जैसी दो तस्वीरों को लाल और नीले टोन/Tone में प्रोसेस करके कुछ इस तरह से ओवरलैप/Overlap किया जाता है, कि लाल और नीले रंग के 3D चश्मे से देखने पर वो तस्वीर स्वाभाविक गहराई के साथ जीवन नज़र आती है।
इसी Anaglyph Technology की मदद से पहला स्टीरियो एनीमेशन कैमरा बनाया गया, जिसका नाम था काइनेमैटास्कोप/Kinematoscope. इस कैमरे की मदद से साल 1915 में पहली 3D Anaglyph फिल्म बनायी गयी।
पहली थ्री डी फिल्म कोनसी थी? Which was the first 3D movie?
साल 1922 में पहली व्यावसायिक 3D फिल्म द पॉवर ऑफ लव/The Power of Love रिलीज हुई। उस वक़्त की सभी फ़िल्में ब्लैक एंड व्हाइट होती थी। 3D में पहली रंगीन फिल्म साल 1935 में बनायी गयी थी। इसके बावजूद भी उस वक़्त थ्री डी तकनीक को ज्यादा लोकप्रिय नहीं बनाया जा सका। इसकी एक तो सबसे बड़ी वजह ये थी कि थ्री डी फिल्में बनाना आम फिल्मों के मुकाबले काफी महंगा होता था, जो की आज भी है, और इन्हें ज्यादा लोगों को एक साथ दिखाना भी मुमकिन नहीं था, क्योंकि इसमें प्रत्येक दर्शक के लिए एक चश्मे की जरूरत होती थी। इसका नतीजा यह रहा कि थ्री डी तकनीक लंबे अरसे तक उपेक्षित ही रही। लेकिन आज टेक्नोलॉजी के इस जमाने में 3D फिल्म को किसी 3D सिनेमा में एक समय में बहुत से लोग देख सकते हैं।
साल 1935 के बाद 1950 में थ्री डी तकनीक की फिर वापसी हुई। इस वक्त टेलीविजन ज्यादा लोकप्रिय हो रहा था, और इसकी मार से जूझ रही फिल्म इंडस्ट्री कुछ नया करने की तलाश में थी। साल 1950 में ब्वाना डेविल/Bwana Devil और हाउस ऑफ वैक्स/House of Wax जैसी कई थ्री डी फिल्में बनायी गईं। 3D फिल्मो के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही होती थी की इनको सभी सिनेमा हॉलों में नहीं दिखाई जा सकता, इनके लिए स्पेशल 3D Enable सिनेमा घरों की जरूरत होती है। कुछ सालों तक तो 3D टेक्नोलॉजी में ज्यादा विकास नहीं हो पाया, लेकिन कंप्यूटर के आ जाने के बाद इस क्षेत्र में बहुत तरक्की हुए जो की अकल्पनीय है।
थ्री डी स्टीरियोविजन/3D Stereovision
साल 1970 में एक नयी थ्री डी टेक्नोलॉजी स्टीरियोविजन/Stereovision का विकास हुआ। इस तकनीक में खास लेंस के साथ कई पोलेराइड फिल्टर्स/Polerised Filters का इस्तेमाल किया जाता था। इसके साथ ही थ्री डी टेक्नोलॉजी में पोलेराइड चश्मों/Polerised Glasses का भी आरम्भ हो चूका था। इसके बाद एनाग्लिफ टेक्नोलॉजी और उनके लाल-नीले चश्मे धीरे-धीरे 3D मुख्यधारा से हटते चले गये। स्टीरियोविजन में बनी पहली फिल्म थी स्टीवाडेर्सेस/Stivaderses। उस वक़्त एक लाख डॉलर की लागत से बनी इस फिल्म ने उत्तरी अमेरिका में कामयाबी के झंडे गाड़ दिये। इस फिल्म ने दो करोड़ 70 लाख डॉलर का बिजनेस किया था। इसके बाद 80 के दशक में तो बहुत सारी थ्री डी फिल्मों आयी और पूरी दुनिया में बहुत ही मशहूर हुई, इसके बाद 1990 और 2000 के बिच तो कुछ ऐसी 3D फ़िल्में आयी जिन्होंने पूरी दुनिया में 3D इंडस्ट्री के लिए नए अवसर तैयार कर दिए, और आज शायद ही कोई ऐसी फील बनती हो जिसमें कहीं न कहीं 3D का इस्तेमाल न होता हो।
पोलेराइड चश्मे/Polerised glasses
साल 1986 में कनाडा/Canada ने पूरी तरह से पोलेराइड तकनीक पर आधारित फिल्म बनायी थी, जिसका नाम था इकोज ऑफ द सन/Echoes of The Sun. इसी के साथ ही पुराने चश्मों की जगह नये पोलेराइड चश्मों ने ले ली।
थ्री डी टीवी/3D TV
साल 2010 में थ्री डी तकनीक ने सिनेमा के परदे से उतर कर टीवी इंडस्ट्री में अपनी जगह बना ली। आज के दिन की अगर बात करें तो इसमें सोनी/Sony, पैनासोनिक/Panasonic, सैमसंग/Samsung और एलजी/LG आदि के थ्री डी टीवी सेट्स से बाजार भरे पड़े हैं, लेकिन फ़िलहाल ज्यादा कीमत के चलते ये आम लोगों की पहुंच से बाहर ही हैं। आज बहुत से देशों में कई ऐसे सेटेलाइट चैनल्स हैं, जो 24 घंटे एजुकेशनल शोज/Educational Shows, एनीमेटेड शोजAnimated Shows, स्पोर्ट्स/Sports, डॉक्यूमेंट्रीज/Documentaries और म्यूजिकल परफॉरमेंस सब कुछ थ्री डी फॉरमेट में दिखा रहे हैं।
भारत में पहली थ्री डी फिल्म कोनसी थी? Which was the first 3D Indian movie?
हमारे देश में पहली बार 3D फिल्म साल 1984 में रिलीज की गयी थी, जो की एक मलयालम भाषा की फिल्म थी, जिसका नाम था माई डियर कुट्टीचथन/My Dear Kuttichathan. इसके अगले ही साल 1985 में राज एन सिप्पी/Raj N. Sippi की फिल्म शिवा का इंसाफ/Shiva ka Insaf रिलीज हुई, जो की भारत की पहली हिंदी 3D फिल्म थी। इस फिल्म में जैकी श्रॉफ की मुख्य भूमिका थी, इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर करीब 60 करोड़ रुपये की जबरदस्त कमाई की और कामयाबी की एक नयी इबारत लिखी। इसके बाद 1998 में माई डियर कुट्टीचथन/My Dear Kuttichathan का नयी तकनीक और डिजिटल साउंड/Digital Sound के साथ हिंदी रीमेक आया, जिसे छोटा चेतन/Chota Chaten के नाम से रिलीज किया गया।
छोटा चेतन के बाद कई सालों तक भारत में कोई भी 3D फिल्म नहीं बनाई, तक़रीबन 5 साल बाद 2003 में छोटा जादूगर/Chota jadugar नाम की एक फील आयी थी, उसके बाद तो Bollywood फिल्म इंडस्ट्र्री में 3D फिल्मों का जबरदस्त दौर चल पड़ा था और इसके बाद बहुत सी नई थ्री डी फ़िल्में रिलीज हुई। 3D फिल्मों के कम बनने का कारण उस वक़्त महंगी टेक्नोलॉजी का होना था क्यूंकि, इसके लिए सभी तकनीशियन विदेशों से बुलवाने पड़ते थे, दूसरा कारण ये भी था की तब देश में 3D सिनेमाघर नहीं थे, क्यूंकि किसी भी 3D फिल्म को सामान्य सिनेमाघर में नहीं चलाया जा सकता है। थ्री डी फिल्म रिलीज करने के लिए थियेटर के परदे और प्रोजेक्टर में भी कुछ बदलाव करना पड़ता था। बदलते वक्त के साथ इन कमियों को बहुत हद तक दूर कर लिया गया है। आजकल Hollywood और Bollywood में अधिकतर फ़िल्में 3D तकनीक से ही बनाई जा रही हैं।
थ्री डी प्रिंटर/3D Printer
इसे थ्री डी टेक्नोलॉजी का सबसे बड़ा कारनामा कह सकते हैं। पहला 3D Printer थ्री डी सिस्टम्स कारपोरेशन के अभियंता/Engineer चक हल/Chak Hal ने साल 1984 में बनाया था, तब से अब तक लगभग 36 सालों के दौर में थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी और थ्री डी प्रिंटिंग मशीन में जबरदस्त बदलाव हो चुके हैं। थ्री डी टेक्नोलॉजी अब अपनी सीमाएं तोड़ कर एक नये युग में प्रवेश कर चुकी है। 3D की इस नयी क्रांति का नाम है 3D Printing Technology जिस एडेटिव मैन्यूफैरिंग/Additive Manufacturing भी कहा जाता है। मान लीजिए आपके किसी मशीन का कोई छोटा पार्ट टूट गया है जिसका बाजार में मिलना भी मुशिकल हो, या कोई ऐसी छोटी चीज जो आपको कहीं न मिल रही हो उसे इस तकनिकी से आप घर पर ही बना सकते हैं। 3D प्रिंटर की मदद से आप उसे प्रिंट कर सकते हैं, हाँ इसके लिए आपको निश्चित रूप से इस टेक्नोलॉजी का ज्ञान होना चाहिए। नयी थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोल़ॉजी आपकी इन मुश्किलों को बेहद आसान बना देती है। 3D Printer भी साधारण प्रिंटर की तरह ही होता है, बस इसमें इतना अंतर होता है कि इसका प्रिंट आउट कागज की शीट/Sheet की तरह साधारण न होकर थ्री डी में एक के ऊपर दूसरी परत/Layer को जमाते हुए बनता है। उदहारण के तौर पर आपको कंप्यूटर कीबोर्ड का एक बटन चाहिए तो ऐसे में आपको अपने कंप्यूटर पर 3D Software में बटन का एक मॉडल बनाना होगा और उसके बाद आप इसे 3D प्रिंटर से बटन का प्रोग्राम सेलेक्ट कर मैटीरियल कार्टिजेज/Material Cartridge सेलेक्ट करना होगा। 3D प्रिंटिंग का प्रोसेस थोड़ा लम्बा होता है, इसके लिए आपको थोड़ा इंतज़ार करना पड़ सकता है।
कैसे काम करता है थ्री डी प्रिंटर? How 3D Printer is Working?
जैसा की मैं आपको पहले ही बता चूका हूँ कीं थ्री डी प्रिंटर भी किसी अन्य सामान्य प्रिंटर की तरह ही टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करता है, बीएस इसमें इंक कार्ट्रिज/Ink Cartridge की जगह किसी दूसरे मटेरियल का इस्तेमाल होता है, जैसे की प्लास्टिक या फिर प्लास्टिक से मिलती जुलती अन्य धातु जो गर्मी मिलने पर पिघल सकती हो। इस प्रिंटर में कार्ट्रिज की जगह ऊपर लगी हुई एक नोजल/Nojal होती है जो पिघले हुए मटेरियल/Material को परत दर परत छिड़काव करती है और किसी भी 3D मॉडल का निर्माण करती है। कंप्यूटर प्रोग्राम से पहले ही ये तय किया जाता है कि आपको किस चीज का 3D मॉडल बनाना है। आधुनिक जीवन में इस मशीन की उपयोगिता को देखते हुए इसकी कीमत काफी कम है। इसमें कोई भी मॉडल या उसका उसका Blue-Print प्रोग्राम और खास मैटीरियल की कार्टेज आपको अलग से खरीदनी होती है। अगर आपको 3D टेक्नोलॉजी के कुछ सॉफ्टवेयर का ज्ञान है तो आप इसका Blue-Print खुद भी तैयार कर सकते हैं।
3D Printer की कार्यप्रणाली बहुत ही धीमी होती है, अभी इसके विकास कीओर ज्यादा जरुरत है। इस थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी की मदद से कृषि क्षेत्र के औजारों से लेकर, भवन निर्माण, इंडस्ट्रियल डिजाइनिंग, ऑटोमोबाइल, एयरोस्पेस, सेना, इंजीनियरिंग, दंत चिकित्सा, मेडिकल इंडस्ट्री, बायोटेक्नोलॉजी, फैशन, फुटवियर, ज्वैलरी, आईवियर, शिक्षा, जियोग्राफिक इन्फॉर्मेशन सिस्टम्स, फूड और कई दूसरे क्षेत्रों की चीजें आसानी से घर बैठे बनायी जा सकती हैं। भारत में यह टेक्नोलॉजी अभी अपने शुरुआती दौर में है, धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल बढ़ रहा है। थ्री डी प्रिंटिंग बिलकुल एक जादू की छड़ी जैसा है, बस आप सोचिए कंप्यूटर पर बनाइये और यह टेक्नोलॉजी उसे साकार कर दिखायेगी। अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में इस टेक्नोलॉजी का बहुत ही इस्तेमाल किया जा रहा है।
थ्री डी प्रिंटर बायोटेक्नोलॉजी से बनाएंगे मानव कृत्रिम अंग। 3D printers will make human prostheses from biotechnology.
आज दुनियाभर में थ्री डी प्रिंटर से बहुत से रिसर्च किये जा रहे हैं, इसकी का एक उदहारण है इसके द्वारा बनाये जाने वाले कृत्रिम मानव अंग। दुनिया भर में हर साल अंग प्रत्यारोपण के लिए Donner का इंतजार कर रहे हजारों लोगों की मौत हो जाती है, कुछ वैज्ञानिकों ने इसे मानव अंग बदलने के लिए बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में इस्तेमाल प्रयोगिक तौर पर शुरू भी कर दिया है। थ्री डी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी कृत्रिम अंग रचना के लिए एक वरदान साबित हो रही है। थ्री डी प्रिंटर के इस्तेमाल से मानव अंग भी बनाये जाने लगे हैं, एक कंपनी इस अनोखे प्रयोग को अंजाम दे रही है, जिसका नाम है मेलबर्न टीटीपी/Melborn TTP. थ्री डी प्रिंटर से कृत्रिम मानव अंग बनाने के लिए स्टेम सेल/Stem Cell की मदद से प्रयोगशाला में बनायी गयी मानव कोशिकाओं को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने एक खास नोजल को विकसित करके इसके द्वारा प्रयोगशाला में एक मानव कान प्रिंट करके तैयार किया है। इस क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिक अब मानव लिवर और हड्डियों को थ्री डी प्रिंटर से बनाने की तैयारी में लगे हुए हैं, हो जल्द ही वो इसमें सफलता भी प्राप्त कर लें। Melborn TTP के वैज्ञानिक इस प्रयास में लगे हैं कि आने वाले कुछ सालोँ में मानव अंग प्रत्यारोपण के लिए किसी Donner की जरुरत नहीं रहेगी। थ्री डी प्रिंटर से अभी सर्जिकल इम्प्लांट्स/Surgical Implants जैसे हिप/Hip और नी/Knee रिप्लेसमेंट्स बनाये जा रहे हैं। स्टेम सेल/Stem Cell, बायोटेक्नोलॉजी/Biotechnology और थ्री डी प्रिंटर का ये आपसी तालमेल पूरी मानवता के लिए एक नया वरदान साबित हो सकता है।
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